लद्दाख आंदोलन: भूख हड़ताल से हिंसा तक की कहानी

आंदोलन की शुरुआत और पृष्ठभूमि

लद्दाख में चल रहा वर्तमान आंदोलन अचानक से शुरू नहीं हुआ है। इसकी जड़ें अगस्त २०१९ में धारा ३७० के निरसन के साथ ही जुड़ गई थीं जब लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग करके एक स्वतंत्र केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था। उस समय केंद्र सरकार ने लद्दाख के लोगों को विशेष अधिकार और संवैधानिक सुरक्षा देने का वादा किया था, लेकिन छह वर्ष बीत जाने के बाद भी ये वादे पूरे नहीं हुए हैं।

लद्दाख के मूल निवासी, जो कुल आबादी का ९७ प्रतिशत से अधिक हैं, अपनी सांस्कृतिक पहचान, भूमि और प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं। केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद स्थानीय लोगों को डर है कि बड़े व्यवसायिक समूहों और बाहरी लोगों द्वारा उनकी भूमि और नौकरियों का अधिग्रहण हो सकता है।

वर्तमान आंदोलन की तत्काल शुरुआत १० सितंबर २०२५ को हुई जब लेह एपेक्स बॉडी और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस के नेतृत्व में पंद्रह लोगों ने पैंतीस दिनों की भूख हड़ताल शुरू की। इस भूख हड़ताल का नेतृत्व प्रसिद्ध पर्यावरणविद और शिक्षाविद सोनम वांगचुक ने किया, जो 'थ्री इडियट्स' फिल्म के फुनसुक वांगरू का प्रेरणास्रोत हैं।

Leh-Protest

आंदोलनकारियों की मुख्य मांगें

लद्दाख के प्रदर्शनकारियों की चार प्रमुख मांगें हैं जो इस आंदोलन के केंद्र में हैं। पहली और सबसे महत्वपूर्ण मांग लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा देने की है। वर्तमान में लद्दाख एक केंद्र शासित प्रदेश है जिसमें कोई विधानसभा नहीं है, जिससे स्थानीय लोगों का अपने क्षेत्र के मामलों पर पर्याप्त नियंत्रण नहीं है।

दूसरी मांग संविधान की छठी अनुसूची के दायरे में लद्दाख को शामिल करने की है। छठी अनुसूची भारतीय संविधान का वह भाग है जो असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के जनजातीय क्षेत्रों को विशेष स्वायत्तता प्रदान करती है। इसके तहत स्वायत्त जिला परिषदें भूमि, वन, जल संसाधन, शिक्षा और सांस्कृतिक मामलों पर कानून बना सकती हैं।

तीसरी मांग लेह और कारगिल के लिए अलग-अलग लोकसभा सीटों की है। वर्तमान में पूरे लद्दाख की केवल एक लोकसभा सीट है, जबकि आंदोलनकारी चाहते हैं कि दोनों जिलों का अलग प्रतिनिधित्व हो। चौथी मांग सरकारी नौकरियों में स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण की है ताकि यहां के युवाओं को रोजगार के अवसर मिल सकें।

भूख हड़ताल से हिंसा तक का सफर

सोनम वांगचुक के नेतृत्व में शुरू हुई भूख हड़ताल शुरुआत में पूरी तरह शांतिपूर्ण थी। वांगचुक ने हमेशा गांधीवादी तरीकों का समर्थन किया और अहिंसक आंदोलन पर जोर दिया था। लेकिन जैसे-जैसे दिन बीतते गए और केंद्र सरकार की तरफ से कोई ठोस प्रतिक्रिया नहीं आई, स्थानीय लोगों में निराशा बढ़ने लगी।

२२ सितंबर को स्थिति तब गंभीर हो गई जब भूख हड़ताल पर बैठे दो लोगों की तबीयत अचानक बिगड़ गई और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। इस घटना ने स्थानीय युवाओं में आक्रोश की लहर पैदा कर दी। लेह एपेक्स बॉडी की युवा शाखा ने २३ सितंबर को पूरे लेह में बंद का आह्वान किया।

२३ सितंबर की सुबह लेह में हजारों युवा सड़कों पर उतर आए। जो प्रदर्शन शांतिपूर्ण तरीके से शुरू हुआ था, वह दोपहर तक हिंसक हो गया। प्रदर्शनकारियों ने भाजपा कार्यालय में आग लगा दी, पुलिस वाहनों को जलाया और सीआरपीएफ की गाड़ी को भी नहीं बख्शा। पुलिस पर पत्थरबाजी की गई और कई सरकारी इमारतों को निशाना बनाया गया।

स्थिति को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को आंसू गैस का प्रयोग करना पड़ा, लाठीचार्ज किया गया और अंततः गोलीबारी भी करनी पड़ी। इस हिंसक झड़प में चार लोगों की मौत हो गई और सत्तर से अधिक लोग घायल हुए। प्रशासन को भारतीय न्याय संहिता की धारा १६३ के तहत निषेधाज्ञा लगानी पड़ी जिसके तहत पांच या अधिक लोगों के इकट्ठा होने पर रोक लगा दी गई।

हिंसा की इन घटनाओं को देखकर सोनम वांगचुक अत्यधिक दुखी हुए और उन्होंने तुरंत अपनी पंद्रह दिन की भूख हड़ताल समाप्त करने की घोषणा की। उन्होंने एक वीडियो संदेश में युवाओं से हिंसा तुरंत रोकने की अपील की और कहा कि हिंसा से उनके उद्देश्य को ही नुकसान पहुंचेगा। वांगचुक ने इस आंदोलन को 'जेन-जेड क्रांति' करार देते हुए कहा कि पांच साल से बेरोजगार युवाओं का गुस्सा फूट पड़ा है।

लद्दाख आंदोलन की जड़ें गहरी हैं और यह केवल राजनीतिक मांगों तक सीमित नहीं है। यह एक सांस्कृतिक, आर्थिक और पारिस्थितिक संघर्ष है जो धारा ३७० के निरसन के बाद से निरंतर बढ़ता जा रहा है। लेह एपेक्स बॉडी और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस जैसे संगठन पिछले छह वर्षों से इन मांगों को उठाते आ रहे हैं, लेकिन केंद्र सरकार की उदासीनता ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है।

छठी अनुसूची की मांग का विशेष महत्व इसलिए है क्योंकि यह लद्दाख के ९७ प्रतिशत से अधिक जनजातीय आबादी को अपनी भूमि, संसाधनों और संस्कृति पर नियंत्रण देती है। इसके बिना स्थानीय लोगों को डर है कि बाहरी व्यवसायिक समूह उनकी भूमि पर कब्जा कर लेंगे और उनकी सदियों पुरानी जीवनशैली खतरे में पड़ जाएगी।

भूख हड़ताल से हिंसा तक का यह सफर दर्शाता है कि लोकतांत्रिक मांगों को लंबे समय तक नजरअंदाज करने के क्या परिणाम हो सकते हैं। सोनम वांगचुक जैसे शांतिप्रिय नेता भी हिंसा देखकर अपना आंदोलन वापस लेने पर मजबूर हो गए, लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं है। केंद्र सरकार को इन वैध मांगों पर गंभीरता से विचार करना होगा ताकि भविष्य में ऐसी हिंसक घटनाओं से बचा जा सके।

अक्टूबर में होने वाली प्रस्तावित वार्ता इस संकट का समाधान निकालने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकती है, बशर्ते कि दोनों पक्ष सच्चाई और सद्भावना के साथ बातचीत में शामिल हों।

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Kuldeep Pandey
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